Thursday, 4 December 2008

मोमबत्तियां बुझने के बाद

२ दिसम्बर २००८ की शाम ६:३० बजे लखनऊ के जीपीओ पार्क में शहर के लोगों ने मुंबई में २६ नवम्बर की आतान्कवादी घटना के विरोध में अपना रोष प्रकट किया, घटना में मरने वालों को श्रद्धांजलि दी और एनएसजी तथा मुंबई पुलिस के शहीदों के प्रति अपनी संवेदना और सदभाव को मोमबत्ती जलाकर ज़ाहिर किया। इस सम्बन्ध में मै अपने एहसास को इस नज़्म के ज़रिये आप सब तक पहुंचाना चाहता हूँ :

तीन दिसम्बर की सुबह
जब मै अपने शहर लखनऊ के जीपीओ पार्क गया
तो देखा
कल रात जलाई हुई मोमबत्तियों से
टपकी हुई मोम की बूंदें
फर्श पर जम चुकी थीं
गांधीजी की मूर्ति के ठीक नीचे
एक अधजली मोमबत्ती
ख़ामोश खड़ी थी
उसकी रूह उसे छोड़ चुकी थी
उसका सफ़ेद जिस्म ठंडा पड़ चुका था
उसके अन्दर मौजूद धागा झुलसकर काला हो गया था
अब उसे
फिर से जलाकर रोशन नहीं किया जा सकता था
मेरी सहमी हुई उँगलियों ने
जब उसे छूकर देखा
तो एक सिहरन मेरे पूरे बदन में दौड़ गई
जैसे मौत को छू लिया हो
मै डर गया
मैंने अपनी नज़र वहां से हटा ली
फिर आसपास जमी मोम की बूंदों को देखने लगा
मैंने अपने नाखूनों से
एक एक बूँद को खरोचना शुरू किया
आँखें फटी रह गयीं
हर बूँद की तह में ताज़ा लाल खून था
और खून की हर बूँद पर लिखा हुआ था
अलग अलग एक एक नाम
बिल्कुल साफ़
करकरे, काम्टे, सालसकर, उन्नीकृष्णन
और कुछ नाम
बहुत आम
जैसे हमारे आपके होते हैं
मैंने घबराकर चारों तरफ़ नज़र डाली
सारा पार्क देखे-अनदेखे चेहरों से भर चुका था
दर्द, तड़प, खौफ़
और निराशा में डूबे हुए चेहरे
फिर कहीं नज़दीक से
एक बच्चे के ज़ोर ज़ोर से रोने की आवाज़ आने लगी
मेरे हाथ-पैर सुन्न पड़ गए
मै कुछ न कर सका
बच्चा रोता रहा
उसकी माँ उसे चुप कराने नहीं आई
दूर कहीं
एक औरत चिल्लाने लगी
मोशे, मोशे...
मै पूरी तरह पसीने से तर हो चुका था
और मेरा बदन
बिल्कुल पत्थर जैसा
सारे शरीर को जैसे लकवा मार गया हो
तभी अचानक
किसी बुजुर्ग ने मेरे कंधे पर हाथ रखा
और मेरा हाथ पकड़कर
अपने साथ ले जाने लगे
पार्क से बाहर की ओर
मैंने पलटकर देखा
गांधीजी की तरफ़
आज उनके हाथ में लकड़ी का वो डंडा नहीं था
आज मैंने पहली बार गांधीजी के हाथ में बन्दूक़ देखी
आज पहली बार मुझे लगा
अब हमारा देश आतंकवाद का सही जवाब देगा